08/03/2024
नरबदी
मैकल पर्वत के घने जंगलों में आठ-दस झोपड़ियों का एक गाँव था। वहाँ एक झोपड़ी में दुग्गन आदिवासी रहता था। उसकी एक पुत्री थी नरबदी। उसकी माँ उसे जन्म देकर बचपन में ही मर गयी थी। नरबदी अब बारह बरस की हो गयी थी। दुग्गन अपनी बेटी को सदा अपने साथ ही रखता था।
एक दिन झोपड़ी की मरम्मत के लिए वह अपनी बेटी नरबदी को साथ लेकर बाँस लेने के लिए मैकल पर्वत पर गया। धूप तेज थी। वे दोनों पहाड़ पर चढ़ते गये। नरबदी को प्यास लगी। तो दुग्गन अपनी बेटी नरबदी को बॉस के बीड़े के छाव में बैठने का बोल कर पानी की खोज में मैकल के घने वनों में इधर-उधर भटकते हुए निकल गया दूर दूर तक पानी का कहीं पता नहीं दुखी दुग्गन को अपनी बेटी के पियास की चिंता होने लगी थी ! नरबदी पेड़ों की घनी छाया में बैठी रही। तब उसने अनुभव किया कि वह तो यहाँ छौंव में बैठी है। उसका पिता तो धूप और थकावट से बहुत प्यासे होंगे । नरबदी देवता को मनाने लगी. “हे बड़े देवता ! तू मेरे बाबा की रक्षा करना।” जब लौटकर दुग्गन बॉस के बीड़े के पास पहुँचा। तो ..
नरबदी कहीं दिखी नहीं वह व्याकुल हो गया। ..तभी बॉस के बीड़े से कल-कल की आवाज करते झरने को सुना ... दुग्गन रोता हुआ अपनी पुत्री को पुकार रहा था। नरबदी झरने के रूप में कल-कल कर बहती जा रही थी।.....नरबदी ने दुग्गन से कहा, बाबा तुम मेरी पियास बुझाने खुद भूके पियासे भटक रहे थे बाबा अब कोई पियासा नहीं रहेगा “तुम अपनी प्यास बुझा लो, मैं झरने में बदल गयी हूँ। ये सुन कर दुग्गन के आँखों में आशु आ गए ! ” नरबदी बाँसों के बिड़ो झुरमुटों से बह रही थी, कल-कल करती। तब से वही नरबदी अमरकण्टक से नर्मदा के नाम से बह रही है-समुद्र तक। वही नरबदी-नर्मदा के रूप में अमरकण्टक से जीवनरेखा बनकर बहती रहती है। यही नर्मदा जी की सच्ची कहानी हैं ..राजेश वट्टी