Kachchhava Clan

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पूर्व ठिकानेदार की 2000 करोड़ की प्रॉपर्टी, होटल से किले तक अब सब सरकार के हुए,,,,,,,खेतडी के अंतिम ठिकानेदार और  राजा अ...
05/02/2025

पूर्व ठिकानेदार की 2000 करोड़ की प्रॉपर्टी, होटल से किले तक अब सब सरकार के हुए

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,,,,खेतडी के अंतिम ठिकानेदार और राजा अजीत सिंह के वंशज और खेतड़ी ठिकाने के राजा राय बहादुर सरदार सिंह की संपत्ति पर सरकार का अधिकार व कब्जा रहेगा। जिला मजिस्ट्रेट (कलेक्टर) कोर्ट ने बुधवार को बड़ा फैसला देते हुए खेतड़ी ट्रस्ट व गजसिंह अलसीसर का प्रार्थना पत्र खारिज कर दिया।
कौन था ये राजा और क्यों इतने सालों बाद सरकार की हुई संपत्ति...
- खेतड़ी ट्रस्ट व गजसिंह अलसीसर ने संपत्ति पर अपना अधिकार जताया था।
- खेतड़ी ठिकाने की संपत्ति करीब 2,000 करोड़ रुपए की है।
- कलेक्टर कृष्ण कुणाल ने अपील संख्या 186- 1999 का निस्तारण करते हुए यह फैसला दिया है।
- राज्य सरकार ने 1987 में राजा अजीत सिंह के वंशज और खेतड़ी के अंतिम शासक राय बहादुर सरदार सिंह की मृत्यु के बाद इनको नाऔलाद बताते हुए इनकी संपत्ति को रिसीवर के तौर पर कब्जे में ले लिया था।
दिल्ली व राजस्थान हाईकोर्ट की सिंगल बैंच व डबल बेंच में प्रकरण करीब 25 वर्ष तक चला। सभी पक्षों को सुनने के बाद कलेक्टर कोर्ट ने उपभोक्ता क्लेमेंट्स के क्लेम गैर कानूनी व अविधिक मानते हुए खारिज कर राज्य सरकार के पक्ष में निर्णय पारित किया है।
यह है मामला : खेतड़ी ठिकाने में एक तीन सितारा हेरिटेज होटल, जयपुर का खेतड़ी हाउस और गोपालगढ़ का किला है। यह सारी संपत्ति 1987 में खेतड़ी के आखिरी शासक राय बहादुर सरदार सिंह की मौत के बाद से राज्य सरकार के संरक्षण में है। सरदार सिंह के उत्तराधिकारी नहीं होने से सरकार को सारी प्रोपर्टी पर कब्जा लेना पड़ा। राजस्थान एस्चीट्स रेगुलेशन एक्ट के तहत सरकार ने अपनी संपत्ति माना । उत्तराधिकारी के अभाव में सरकार को सारी प्रॉपर्टी पर कब्जा लेना पड़ा। इसके बाद खेतड़ी ट्रस्ट, सरदार सिंह के परिजनों व सरकार के बीच संपत्ति की लड़ाई चली।

24/12/2024

यह है विश्व का सबसे प्राचीन और पहला धर्म सुनकर आप भी चौंक जाएंगे।

"जब जब सनातन पर आंच आएगी,तब तब बस एक हि कौम याद आयेगी,जिसने सदियों सनातन रक्षार्थ अपनी पीढ़ियां रण मे खपा दी।"✒️कुंवर नाद...
10/12/2024

"जब जब सनातन पर आंच आएगी,तब तब बस एक हि कौम याद आयेगी,जिसने सदियों सनातन रक्षार्थ अपनी पीढ़ियां रण मे खपा दी।"
✒️
कुंवर नादान

 #बांग्लादेश_एपिसोड"जो कौमे स्वयं को रक्षित नही कर सकती उनका मिटना तय है।2 करोड़ अगर दौ सौ सुरमा पैदा नही कर सकते तो कटने...
09/12/2024

#बांग्लादेश_एपिसोड
"जो कौमे स्वयं को रक्षित नही कर सकती उनका मिटना तय है।2 करोड़ अगर दौ सौ सुरमा पैदा नही कर सकते तो कटने से कोई रोक नही सकता।"
यही हकीकत है।

 #कोई__गद्दार_है_देश मे जो इस चुनौती को स्वीकार करे ??????जीत गए तो पैसे तुम्हारे ...हार गए तो पैसे संस्थान के.फरवरी के ...
18/11/2024

#कोई__गद्दार_है_देश मे जो इस चुनौती को स्वीकार करे ??????

जीत गए तो पैसे तुम्हारे ...हार गए तो पैसे संस्थान के.

फरवरी के महीने में , उत्तरप्रदेश के #कन्नौज में कई बर्षो से महाराज जयचंद स्म्रति संस्थान की तरफ से एक आयोजन होता है, जिसमे #महान_राजा_जयचंद्र पर काल्पनिक आधार पर लगाये गए आरोप को #ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध क़रने पर लाखों रुपये का इनाम है.....पिछले 15 वर्षों में ना के बरावर लोगो ने ये चुनौती स्वीकार की है, और कुछ मठाधीशों ने चुनौती स्वीकार की थी वो हार कर घर चले गए...... इस संस्थान में कई बड़े इतिहासकार व साहित्यकार सम्राट जयचंद्र की तरफ से अपना पक्ष रखते हैं.....किंयु ऐतिहासिक साक्ष्य ये कहते ही नही की महाराज जयचंद गलत थे,इसलिये आज तक कोई ऐसा सावित भी कर ही नही पाया..

पर दुख ये है, हमने बिना इतिहास पढ़े ,भेंड़ चाल में चलते ,उस राजा पर आरोप लगाये हैं, जिसने अपनी प्रजा के लिए #चंदावर में मोहम्मद गौरी से युद्ध लड़ अपने प्राण न्योछावर किये....ये वही राजा जयचंद थे जिन्होंने अयोध्य्या में राममंदिर को बनवाया था..

101% साक्ष्य के साथ पोस्ट हैं. पढ़िये

#जनतंत्र के कुछ #गद्दारो ने अपने स्वार्थ के लिए ब क्षत्रियोँ से जलन की बजह से बिना सवुतों के एक महान राजा को गद्दार बना दिया,एक ऐसा राजा जिसने खुद अपनी प्रजा की रक्षा के लिए गौरी से युद्ध किया और अपने प्राणों को गवाया ..

कन्नौज के इतिहास व #महाराज_जयचंद्र के जीवन से सम्बंधित इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है कन्नौज का इतिहास....लेकिन इसमें कंही भी ऐसा कोई जिक्र नही है कि महाराज जयचंद किसी भी प्रकार गलत थे.....पर वर्तमान के देशद्रोहियों ने एक धर्मपरायण राजा को बदनाम कर डाला..

#देश_भक्त महाराजा #जयचंद्र__गहरवार

जयचन्द्र (जयचन्द), महाराज विजयचन्द्र जी के पुत्र थे। ये कन्नौज के राजा थे। जयचन्द का राज्याभिषेक वि.सं. १२२६ आषाढ शुक्ल ६ (ई.स. ११७० जून) को हुआ।
राजा जयचन्द पराक्रमी शासक थे । उसकी विशाल सैन्य वाहिनी सदैव विचरण करती रहती थी,
इसलिए उसे ‘ - ंगुळ' भी कहा जाता है। इसका गुणगान ृथ्वीराज_रासो में भी हुआ है।
राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध-कोश में कहा है कि काशीराज जयचन्द्र विजेता था और गंगा-यमुना दोआब तो उसका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था। नयनचन्द्र ने रम्भामंजरी में जयचन्द को ों_का_नाश करने वाला कहा है।

युद्धप्रिय होने के कारण इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढ़ाई की वह ्वितीय हो गई,
जिससे जयचन्द को ंगुळ' की उपाधि से जाना जाने लगा।
जब ये युवराज थे तब ही अपने पराक्रम से कालिंजर के चन्देल राजा ्मा को परास्त किया।
राजा बनने के बाद अनेकों विजय प्राप्त की। जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो (रासो)।
यवनेश्वर सहाबुद्दीन गौरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में पछाड़ा (विद्यापति-पुरुष परीक्षा) । रम्भामञ्जरी में भी कहा गया है कि जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। उत्तर भारत में उसका विशाल राज्य था।
उसने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपनी राज्य सीमा को उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक बढ़ाया था। पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य को छूती थी।

तराईन के युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहाण को परास्त कर दिया था।
इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था।
यहाँ का शासन प्रबन्ध गौरी ने अपने मुख्य सेनापति ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराईन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना।
ऐबक गौरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा।
इस युद्ध के दो वर्ष बाद गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया।
इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था।
गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया।
वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी ।
तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की।
सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला।
मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गया।
दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ।
युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगा।
इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। दुर्भाग्य से जयचन्द के एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया, युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि.सं. १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था।

जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है।
कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं।
ऐसे कोई ्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं।
संयोगिता प्रकरण में पृथ्वीराज के मुख्य-मुख्य सामन्त काम आ गए थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से गौरी को समाचार दिया कि पृथ्वीराज के प्रमुख सामन्त अब नहीं रहे, यही मौका है। तब भी गौरी को विश्वास नहीं हुआ, उसने अपने दूत फकीरों के भेष में दिल्ली भेजे।
ये लोग इन्हीं लोगों के पास गुप्त रूप से रहे थे। इन्होंने जाकर ौरी_को_सूचना दी, तब जाकर गौरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था।

👉 गौरी को भेद देने वाले थे
1- नित्यानन्द खत्री,
2- प्रतापसिंह जैन,
3- माधोभट्ट तथा
4- धर्मायन कायस्थ जो तेंवरों के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे (पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)। समकालीन इतिहास में कही भी जयचन्द के बारे में उल्लेख नहीं है कि उसने गौरी की सहायता की हो।

यह सब आधुनिक इतिहास में कपोल कल्पित बातें हैं। जयचन्द का पृथ्वीराज से कोई वैमनस्य नहीं था। संयोगिता प्रकरण से जरूर वह थोड़ा कुपित हुआ था।जबकि संयोगिता महाराजा जयचन्द जी की #सगी बेटी नही थी ! महाराजा जयचन्द ने संयोगिता को बेटी समान मानते थे !
उस समय पृथ्वीराज, जयचन्द की कृपा से ही बचा था।

संयोगिता हरण के समय जयचन्द ने अपनी सेना को आज्ञा दी थी कि इनको घेर लिया जाए।
लगातार पाँच दिन तक पृथ्वीराज को दबाते रहे। पृथ्वीराज के प्रमुखप्रमुख सामन्त युद्ध में काम आ गए थे। पाँचवे दिन सेना ने घेरा और कड़ा कर दिया। जयचन्द आगे बढ़ा वह देखता है कि पृथ्वीराज के पीछे घोड़े पर संयोगिता बैठी है। उसने विचार किया कि संयोगिता ने पृथ्वीराज का वरण किया है। अगर मैं इसे मार देता हूँ तो बड़ा अनर्थ होगा, बेटी विधवा हो जाएगी। उसने सेना को घेरा तोड़ने का आदेश दिया, तब कहीं जाकर पृथ्वीराज दिल्ली पहुँचा।
फिर जयचन्द ने अपने पुरोहित दिल्ली भेजे, जहाँ विधि-विधान से पृथ्वीराज और संयोगिता का विवाह सम्पन्न हुआ।
पृथ्वीराज और गौरी के युद्ध में जयचन्द तटस्थ रहा था।
जबकि आनंद शर्मा जैसे इतिहासकार और कई इतिहासकार यह दावा करते हैं कि धर्म परायण महाराजा जय चंद्र जी की कोई बेटी ही नहीं थी !
क्योंकि कोई तथ्य प्राप्त नहीं होते हैं उनकी किसी बेटी होने का !!
इस युद्ध में पृथ्वीराज ने उससे सहायता भी नहीं माँगी थी। पहले युद्ध में भी सहायता नहीं माँगी थी। अगर पृथ्वीराज सहायता माँगता तो जयचन्द सहायता जरूर कर जाते ।

अगर जयचन्द और गौरी में मित्रता होती तो बाद में गौरी जयचन्द पर आक्रमण क्यों करता ?
अतः यह आरोप मिथ्या है।
पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था।
इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था।
यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है।

नोत्र : राजा जयचंद गद्दार नहीं, निर्दोष थे, वे दुष्प्रचार के शिकार हुए| ..

महाराजा जयचन्द जी एक धर्मपरायण देशभक्त महाराजा थे!
यह सभी इतिहासकार यही कहते है , वह भी पूरे #प्रमाण के साथ कि महाराजा जयचन्द जी एक धर्मपरायण देशभक्त महाराजा थे !!

1. नयचन्द्र : रम्भामंजरी की प्रस्तावना।
2. Indian Antiquary, XI, (1886 A.D.), Page 6, श्लोक 13-14
3. भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अध्याय 6
4. Dr. R. S. Tripathi : History of Kannauj, Page 326
5. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 107
6. J. H. Gense : History of India (1954 A.D.), Page 102
7. John Briggs : Rise of the Mohomeden Power in India (Tarikh-a-Farishta), Vol. I, Page 170
8. डॉ. रामकुमार दीक्षित एवं कृष्णदत्त वाजपेयी : कन्नौज, पृ. 15
9. Dr. R. C. Majumdar : Ancient Indian, Page 336 एवं An Advanced History of India, Page 278
10. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 112
11. J. C. Powell-Price : History of India, Page 114
12. Vincent Arthur Smith : Early History of India, Page 403
13. डॉ. आनन्दस्वरूप मिश्र : कन्नौज का इतिहास, पृ. 519-555
14. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. viii-xii
15. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृष्ठ xi

#जितेन्द्र_सिंह_संजय( साहित्यकार)

सौजन्य से : राजन्य_क्रोनिकल्स

डॉ.यशमिता शेखावत w/o डॉ. सुमेर सिंह भाटी तेजमालता को राजस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ वेटरनरी एंड एनिमल साइंस (राजूवास) विश्वविद्...
30/07/2024

डॉ.यशमिता शेखावत w/o डॉ. सुमेर सिंह भाटी तेजमालता को राजस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ वेटरनरी एंड एनिमल साइंस (राजूवास) विश्वविद्यालय, बीकानेर के जेनेटिक्स एंड ब्रीडिंग विषय में पूरे राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त करने और दीक्षांत समारोह में माननीय राज्यपाल महोदय द्वारा स्वर्ण पदक से नवाजे जाने पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

जैसे कि मलेछों की नीति रही थी की जिधर से भी गुजरे लूटपाट, दहशत ओर अराजकता पैदा कर के निकलते थे, ताकि लोगों के दिलों में ...
06/07/2024

जैसे कि मलेछों की नीति रही थी की जिधर से भी गुजरे लूटपाट, दहशत ओर अराजकता पैदा कर के निकलते थे, ताकि लोगों के दिलों में सदा सदा के लिए उनका खोफ कायम हो जाये।हल्दीघाटी के भीषण संग्राम में महाराणा प्रताप ओर चेतक के घायल हो जाने पर झाला मान, रामसा तोमर एवम अन्य सहयोगियों के कहने पर महाराणा प्रताप को युद्ध भूमि से निकलना पड़ा ओर युद्ध का परिणाम शाही सेना के पक्ष में गया,इधर युद्ध समाप्ति के बाद शाही सेना के प्रधान सेनापति महाराजा मानसिंह जी द्वारा यह ऐलान किया गया था की चितौड़ नगर के घरों मे अगर कोई लूटपाट करता देखा गया तो उसी वक्त उसका सिर कलम कर दिया जायेगा।सैनिकों में मानसिंह का खोफ इतना ज्यादा था कि उनकी आज्ञा की अहवेलना कोई नही कर सकता था।अतः चितौड़ दुर्ग के अलावा कहीं कोई लूटपाट नही की गयी।चितौड़ का आमजन ओर उनके घर युद्ध के बाद भी सुरक्षित रहे।

सर्वविदित है कि जब अकबर को इस बात का पता चला तो उसने मानसिंह को कुछ दिनों के लिए दरबार से निष्कासित कर दिया था।वैसे गौर करने वाली बात यह भी है कि अगर राजा मानसिंह की जगह कोई और होता तो क्या उसके लिए भी इतनी आसान सजा होती, शाही हुकुम कीफरमानी के जुर्म में उसी वक्त उसका सिर कलम करवा दिया जाता । लेकिन सच तो यह था कि बादशाह को भी मानसिंह की शक्तियो का अच्छी तरह से भान था। राजा मानसिंह के आत्मघाती हरावल में बीस हजार राजपूतों की एक ऐसी टुकड़ी थी,जो राजा मानसिंह के कहने पर क्षण भर में दुश्मन के सिर काटकर उनके कदमों में डाल सकती थी और वक्त पड़े उनके लिए अपने सिर कटवाने में भी पीछे नही हटती थी।इसी दस्ते की बदौलत मानसिंह ने बड़े बड़े युद्ध जीते थे।यह वही आत्मघाती दस्ता था जिसका नेतृत्व करते हुऐ अफगानिस्तान में मलेछों को काट काट कर मानसिंह जी ने उनके रक्त से अफगानी धरती को लाल कर दिया था।अगर मैं यह कहूँ तो अतिशयोक्ति नही होगी कि शारीरिक रूप से भले ही महाराजा मानसिंह जी दिल्ली दरबार मे थे लेकिन एक सत्य यह भी है कि महाराजा मानसिंह की वीरता और उनकी शक्तियों के भय के कारण अकबर पूर्ण रूप से महाराजा मानसिंह जी गुलाम बन चुका था।इसी भय का परिणाम था कि खुर्रम के साथ सल्तनत के खिलाफ अंदरूनी साजिश में शामिल होने का पता लगने के बावजुद भी अकबर ने महाराजा मानसिंह को कोई कठोर सजा ना देते हुए उनको सिर्फ दिल्ली से हटा कर बंगाल भेज दिया गया जबकि खुर्रम को कैद कर कालकोठरी में डाल दिया गया था।
इन सब बातों से एक बात यह साफ जाती है कि अकबर के मन ओर मस्तिष्क पर महाराजा मानसिंह का खोफ इस कदर हावी था कि चाह कर भी वो महाराजा मानसिंह के खिलाफ जा नही सकता था

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कुंवर नरपतसिंह पिपराली

भरे दरबार मुगल बादशाह को ललकाराने वाला वीर युद्धा
28/05/2024

भरे दरबार मुगल बादशाह को ललकाराने वाला वीर युद्धा

भरे दरबार बादशाह को ललकारने वाला वीर योद्धा Rathore े दरबार बादशाह को ललकारने वाला वीर योद्धा Durgadas Rathore ytshorts shorts....

मुझे समझ नही आता लोग राजपूत विरोधी विशेषकर लेफ्टिस्ट ट्रोलर्स से बहस करने में अपना वक्त क्यों बर्बाद करते हैं। बहस उससे ...
26/02/2024

मुझे समझ नही आता लोग राजपूत विरोधी विशेषकर लेफ्टिस्ट ट्रोलर्स से बहस करने में अपना वक्त क्यों बर्बाद करते हैं। बहस उससे की जाती है जिसे या तो ज्ञान हो या ज्ञान प्राप्त करने की इक्षा रखता हो। जिस व्यक्ति को या तो ज्ञान ना हो या फिर सिर्फ जानबूझकर चिढ़ाने की नीयत रखता हो ऐसे व्यक्ति से बहस करना अपना समय बर्बाद करना ही है।

लेफ्टिस्ट स्पेक्ट्रम की अगर बाते करें तो राजपूतो के मुद्दे पर प्रोफेशनल हिस्टोरियंस से लेकर सामान्य सोशल मीडिया ट्रोलर्स इसी केटेगरी में आते हैं। एक तो इनका ज्ञान बहुत सीमित है, ऊपर से चिढ़ते हैं या फिर ज्ञान होने के बाद भी जानबूझकर राजपूतो को चिढ़ाने के लिए उल्टा सीधा बोलते हैं। इनका सबका कुछ उदाहरण देता हूँ-

एक तरफ तो ये सब लोग मानते हैं कि राजपूत का मतलब सिर्फ राजस्थान से है(भारत मे बहुसंख्यक आबादी ये ही मानती है यहां तक कि राजपूत भी) लेकिन राजस्थानीयो को टारगेट कर के ही राजपूतो को सदैव हारा हुआ बताएंगे जबकि देश मे अकेले राजस्थान के राजपूत हैं जिन्होंने अरबो के आक्रमण से लेकर अंग्रेजो तक लगातार 1300 साल तक राज किया है वो भी सबसे ज्यादा वल्नरेबल होने के बावजूद जिसकी मिसाल इतिहास में दुनिया के किसी कोने में नही मिल सकती।

ये लोग राजपूत का मतलब सिर्फ राजस्थान से मानेंगे लेकिन ये भी बोलेंगे कि राजपूतो के कारण ही देश पर मुसलमानो का अधिपत्य हुआ जैसे रक्षा करने का भार सिर्फ राजस्थानियों पर था।

ये लोग हिन्दूशाही आदि वंशो को कभी ब्राह्मण, कभी जाट गूजर आदि बताएंगे लेकिन जब मुस्लिम आक्रमण से लड़ने की बात होगी तो खामोश हो जाएंगे।

ये लोग प्रतिहार वंश, तंवर वंश, सोलंकियों आदि को जाट गूजर वगैरह बताएंगे लेकिन इनकी हार को राजपूतो की हार बताएंगे।

चंदेल, बुंदेला आदि आदि को आदिवासी मूलनिवासी बताएंगे और खजुराहो के मंदिरों का श्रेय लेंगे लेकिन इनकी हार को राजपूतो की हार बताएंगे।

राजपूतो के हजारों साल के इतिहास के बावजूद राजपूतो को सदैव हारा हुआ और कायर बताएंगे लेकिन सौ साल के इतिहास के आधार पर मराठो को हिन्दुओ का saviour बताएंगे, 1600 से पहले मराठे कहाँ थे और कौन थे ये नही बताएंगे।

सिर्फ पंजाब पर 40 साल राज करने वाले सिक्खों को हिन्दुओ का रक्षक और महानतम योद्धा बताएंगे।

एक छोटे से जिले पर मुगलों के अधीन और जयपुर के सहयोग से शासन करने वाले जाटो को उत्तर पश्चिम भारत की महान योद्धा जाति और हिन्दुओ की प्रथम रक्षा पंक्ति बताएंगे लेकिन ये नही बताएंगे कि इनका कौन सा साम्राज्य था और कौन से युद्ध किये थे।

ये subaltern या हिंदूवादी revisionist इतिहास के नाम पर काल्पनिक योद्धाओं का इतिहास लिखेंगे और उनके हारने को resistance के नाम से सेलिब्रेट करेंगे लेकिन राजपूतो को सदैव हारने वाला कहकर चिढाएंगे।

ये लोग खुद वामपंथी सेक्युलर लिबरल बनेंगे लेकिन राजपूतो को मुगलों से विवाह संबंध या उनके ally होने पर चिढाएंगे।

ये लोग सेक्युलर वामपंथी लिबरल होकर भी राजपूतो को मुस्लिम शासन के लिए जिम्मेदार बताएंगे और गद्दार बोलेंगे। उस समय इनका सेकुलरिज्म गायब हो जाता है।

ये लोग जे एन सरकार जैसे सबसे ईमानदार और ऑब्जेक्टिव इतिहासकार को जिसने कांग्रेस द्वारा भारतीयों को महिमामंडित कर इतिहास लिखने से मना कर दिया था ऐसे इतिहासकार द्वारा औरंगजेब का तथ्यात्मक इतिहास लिखने पर उनको कम्युनलिस्म का वायरस बोलते हैं और इसके पीछे तर्क देते हैं कि उस काल का परीक्षण वर्तमान के मूल्यों से नही करना चाहिए लेकिन खुद अपने आधुनिक मूल्यों का आधार बनाकर राजपूतो को गालियां देते हैं।

ऐसी दुर्भावना और दोगलापन जिन लोगो में है भला उन लोगो से बहस का क्या लाभ? कितनी भी बहस कर लो आप इनका विश्वास नही जीत सकते।

जितना समय इन लोगो से बहस में लगाते हैं उतना पढ़ने और लिखने में लगाइए। जितना आप लिखोगे उतना लाभ होगा।

आज ये जो मंदिर के घंटे की तरह राजपूतो को बजा रहे हैं उसका कारण राजपूतो की कमजोरी है। राजपूत आज सबसे कमजोर जाती है। अगर राजनीति में कुछ ताकतवर भी हैं तो उसका कोई लाभ नही क्योंकि राजपूतो में सामुदायिकता की भावना और राजनीतिक एवं बौद्धिक चेतना जरा भी नही है। राजपूतो में ऐसा कोई इकोसिस्टम नही जो समाज पर हो रहे हमलों और षड्यंत्रों से निपटने और दशा दिशा तय करने का काम करे। ऊपर से ये ब्राह्मणो से भी बड़े हिंदूवादी बनते हैं इसलिए राजपूत इन वामियो के लिए सबसे आसान शिकार हैं। अगर राजपूत ताकतवर और जागरूक होते तो मार खा कर भी ये लोग राजपूतो का गुणगान करते। क्योंकि किसी का तुष्टिकरण या चाट कर किसी को अपना समर्थक या ally नही बनाया जा सकता। समर्थक या ally सिर्फ बलशाली के ही बनते हैं।

राजपूतो की हालत इतनी खराब है कि ट्विटर पर राजपूतो की इतनी छीछालेदर होने पर भी एक भी राजपूत सेलिब्रिटी, बुद्धिजीवी या नेता सामने नही आया। सोच कर देखिए ये अगर किसी और जाति के साथ होता तो।

इसलिए अगर कुछ करना चाहते हैं तो व्यर्थ की बहस के बजाए राजपूतो में सामुदायिकता की भावना और बौद्धिक चेतना के विकास के लिए काम करे। ज्यादा कुछ नही कर सकते तो कम से कम इंटरनेट पर पढ़ने और लिखने पर ही ध्यान दीजिए।

आज मराठा इतिहास लेखन की बेहद समृद्ध धारा है। जिसमे कोई शिवाजी या मराठो के विरुद्ध नकारात्मक नही लिख सकता। लिखता भी है तो दूसरे पक्ष में इतना वृहद लेखन होता रहता है कि वह नक्कारखाने में तूती की तरह दब जाता है। यही हाल सिक्ख इतिहास लेखन का है। 1925 में जे एन सरकार ने शिवाजी का तथ्यात्मक इतिहास लिखा था जिसमे शिवाजी की प्रशंसा की भावना ही थी लेकिन उस समय पूणा के मराठियों ने उनके विरुद्ध बवाल काटा था क्योंकि उसमें शिवाजी का भगवान तुल्य नही प्रस्तुत किया गया था। यह 1925 कि बात है। उस समय विभिन्न इतिहासकार राजपूतो को बिना सबूत के शक हूणों की औलाद बता रहे थे और राजपूतो को कोई मतलब ही नही था।

पूरी सदी बीत गई लेकिन अब तक राजपूतो के इतिहास लेखन की कोई ठीकठाक धारा विकसित नही हुई और उसमे राजपूत विचारधारा के अनुसार लेखन करने वालो की संख्या तो बहुत ही कम है। बल्कि विदेश में बैठे विदेशी ही अज्ञानता के कारण यदा कदा राजपूतो का विकृत इतिहास लिख रहे हैं और अब भी उन्हें ही राजपूत इतिहास पर मानक लेखन बताया जा रहा है। जहाँ इतिहासकार मराठा, सिक्ख, मुगल आदि पर नकारात्मक लिखने से इसलिए बचते हैं कि इससे उनकी प्राथमिक सोर्स तक पहुँच बाधित हो सकती है वही हमारे राजपूत रजवाड़े राजपूतो के खिलाफ लिखने वाले गोरों और बंगालियों को खुशी खुशी अपने आर्काइव तक पहुँच देते हैं वही राजपूत इतिहासकारों को पूछते भी नही।

अकादमिक सर्कल्स में सोशल साइंस में राजपूतो की संख्या बेहद कम है। उसमें भी इतिहास विभागों में तो और भी कम जहाँ राजपूत सबसे ज्यादा होने चाहिए थे। अगर यूपी एमपी बिहार वगैरह की ही बात करें तो जो कुछ राजपूत इतिहासकार हैं भी तो उनमें से ज्यादातर लोगो का विषय राजपूत इतिहास से अलग है, जो राजपूत इतिहास पर लिखते भी हैं तो उनके लिए भी राजपूत इतिहास का मतलब सिर्फ राजस्थान का मध्यकालीन इतिहास है। यूपी जैसे बड़े राज्य में इतिहास विभागो में कुछ राजपूत प्रोफेसरो के होने के बावजूद स्थानीय राजपूत इतिहास पर शोध ना के बराबर है।

अब अगर राजस्थान की बात करें तो यहां लोगो में इतिहास को लेकर रुचि रहती है, भाट इतिहास को लेकर गोत्रवाद के चक्कर मे बहुत passionate लड़ाइयां होती हैं, ढोल नगाड़ों तक पर लड़ाई हो जाती है। यहां के इतिहास को देखते हुए राजस्थान की यूनिवर्सिटीयो और कॉलेजो में इतिहास विभागों में राजपूतो का एकतरफा वर्चस्व होना चाहिए था जिस तरह उत्तर भारतीय यूनिवर्सिटीयो के मध्यकालीन इतिहास विभागों में अशरफ मुसलमानो का है, लेकिन यहां भी बुरा हाल है। यूनिवर्सिटीयो की बात की जाए तो जोधपुर को छोड़कर बाकी यूनिवर्सिटीयो के कैंपस के इतिहास विभाग में राजपूतो की संख्या ना के बराबर है। इतिहास विभागों में पिछले 20 साल में ही जितनी पीएचडी हुई हैं उनको निकाल कर देखो तो राजपूतो की संख्या बहुत कम मिलेगी। पिछले साल उदयपुर यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री पीएचडी का एंट्रेन्स देने वाले लगभग 300 लोगो मे मात्र 5-6 राजपूत थे जबकि कम से कम 70-80 जाट होंगे जबकि मेवाड़ में जाट बेहद कम हैं। ये तो छोड़िए, अकादमिक सेमिनारों में पेपर प्रस्तुत करने या जर्नल्स में छपवाने के लिये किसी शैक्षणिक योग्यता की जरूरत नही होती। कोई amateur भी पेपर प्रस्तुत कर सकता है। हर साल के सेमिनारों के पेपर्स की लिस्ट निकाल कर देखिए, यहां भी राजपूत इक्का दुक्का ही मिलेंगे।

जो कुछ राजपूत इतिहासकार हैं भी वो ज्यादातर किसी ठिकाने या क्षेत्रीय वंश का मध्यकालीन इतिहास लिखते हैं। एक राजपूत विचारधारा या दृष्टिकोण नाम की कोई चीज नही है जिससे तहत कोई इतिहासकार लिखता हो।

इसीलिए कुछ और करे या ना करें सबसे पहले इतिहास लेखन के क्षेत्र में दखल बढ़ाने की जरूरत है जिसमे कोई सामान्य व्यक्ति भी योगदान दे सकता है। इस ग्रुप में बहुत युवा हैं जो इतिहास में रुचि और अच्छी समझ रखते हैं। ऐसे युवा जो एसएससी या उसके समकक्ष किसी परीक्षा की तैयारी करते हैं उन्हें सलाह है कि Academics में सोशल साइंस में भी कैरियर बनाने को लेकर सोचे। यह क्षेत्र mediocre लोगो से भरा पड़ा है और इसका स्तर लगातार गिर रहा है। इतिहास विभाग में तो अधिकतर ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिन्हें ना तो इतिहास की समझ और ना ही रुचि। ऐसे में औसत से बेहतर और इतिहास में रुचि रखने वाले लोगो के लिए कैरियर बनाना बहुत आसान है। अगर प्रोफेशनल इतिहासकार या समाजशास्त्री ना भी बनना चाहें तब भी amateur के रूप में लिखकर भी आप अपने पेपर और किताबे पब्लिश करवा सकते हैं। अगर अगले 5-7 साल में 10-12 राजपूत इतिहासकार या समाजशास्त्री भी हो गए जो लगातार राजपूतो के विषय पर राजपूत दृष्टिकोण से लिखते रहें तो बहुत बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। उसके बाद सक्षम होने पर शोध संस्थान खोला जा सकता है। फिलहाल तो राजपूतो का प्राथमिक इतिहास ही नही लिखा गया है।

Pushpendra Rana की वॉल से

"जिन्होंने अपने पूर्वजों को प्रधान मान लिया वो सरकारों के मोहताज नही होते,क्योंकि प्रधान पूजनीय होते है सरकारें नही"!कुं...
25/02/2024

"जिन्होंने अपने पूर्वजों को प्रधान मान लिया वो सरकारों के मोहताज नही होते,क्योंकि प्रधान पूजनीय होते है सरकारें नही"!
कुं नादान

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