18/11/2024
#कोई__गद्दार_है_देश मे जो इस चुनौती को स्वीकार करे ??????
जीत गए तो पैसे तुम्हारे ...हार गए तो पैसे संस्थान के.
फरवरी के महीने में , उत्तरप्रदेश के #कन्नौज में कई बर्षो से महाराज जयचंद स्म्रति संस्थान की तरफ से एक आयोजन होता है, जिसमे #महान_राजा_जयचंद्र पर काल्पनिक आधार पर लगाये गए आरोप को #ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सिद्ध क़रने पर लाखों रुपये का इनाम है.....पिछले 15 वर्षों में ना के बरावर लोगो ने ये चुनौती स्वीकार की है, और कुछ मठाधीशों ने चुनौती स्वीकार की थी वो हार कर घर चले गए...... इस संस्थान में कई बड़े इतिहासकार व साहित्यकार सम्राट जयचंद्र की तरफ से अपना पक्ष रखते हैं.....किंयु ऐतिहासिक साक्ष्य ये कहते ही नही की महाराज जयचंद गलत थे,इसलिये आज तक कोई ऐसा सावित भी कर ही नही पाया..
पर दुख ये है, हमने बिना इतिहास पढ़े ,भेंड़ चाल में चलते ,उस राजा पर आरोप लगाये हैं, जिसने अपनी प्रजा के लिए #चंदावर में मोहम्मद गौरी से युद्ध लड़ अपने प्राण न्योछावर किये....ये वही राजा जयचंद थे जिन्होंने अयोध्य्या में राममंदिर को बनवाया था..
101% साक्ष्य के साथ पोस्ट हैं. पढ़िये
#जनतंत्र के कुछ #गद्दारो ने अपने स्वार्थ के लिए ब क्षत्रियोँ से जलन की बजह से बिना सवुतों के एक महान राजा को गद्दार बना दिया,एक ऐसा राजा जिसने खुद अपनी प्रजा की रक्षा के लिए गौरी से युद्ध किया और अपने प्राणों को गवाया ..
कन्नौज के इतिहास व #महाराज_जयचंद्र के जीवन से सम्बंधित इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है कन्नौज का इतिहास....लेकिन इसमें कंही भी ऐसा कोई जिक्र नही है कि महाराज जयचंद किसी भी प्रकार गलत थे.....पर वर्तमान के देशद्रोहियों ने एक धर्मपरायण राजा को बदनाम कर डाला..
#देश_भक्त महाराजा #जयचंद्र__गहरवार
जयचन्द्र (जयचन्द), महाराज विजयचन्द्र जी के पुत्र थे। ये कन्नौज के राजा थे। जयचन्द का राज्याभिषेक वि.सं. १२२६ आषाढ शुक्ल ६ (ई.स. ११७० जून) को हुआ।
राजा जयचन्द पराक्रमी शासक थे । उसकी विशाल सैन्य वाहिनी सदैव विचरण करती रहती थी,
इसलिए उसे ‘ - ंगुळ' भी कहा जाता है। इसका गुणगान ृथ्वीराज_रासो में भी हुआ है।
राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध-कोश में कहा है कि काशीराज जयचन्द्र विजेता था और गंगा-यमुना दोआब तो उसका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था। नयनचन्द्र ने रम्भामंजरी में जयचन्द को ों_का_नाश करने वाला कहा है।
युद्धप्रिय होने के कारण इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढ़ाई की वह ्वितीय हो गई,
जिससे जयचन्द को ंगुळ' की उपाधि से जाना जाने लगा।
जब ये युवराज थे तब ही अपने पराक्रम से कालिंजर के चन्देल राजा ्मा को परास्त किया।
राजा बनने के बाद अनेकों विजय प्राप्त की। जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो (रासो)।
यवनेश्वर सहाबुद्दीन गौरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में पछाड़ा (विद्यापति-पुरुष परीक्षा) । रम्भामञ्जरी में भी कहा गया है कि जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। उत्तर भारत में उसका विशाल राज्य था।
उसने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपनी राज्य सीमा को उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक बढ़ाया था। पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य को छूती थी।
तराईन के युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहाण को परास्त कर दिया था।
इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था।
यहाँ का शासन प्रबन्ध गौरी ने अपने मुख्य सेनापति ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराईन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना।
ऐबक गौरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा।
इस युद्ध के दो वर्ष बाद गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया।
इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था।
गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया।
वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी ।
तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की।
सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला।
मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गया।
दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ।
युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगा।
इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। दुर्भाग्य से जयचन्द के एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया, युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि.सं. १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था।
जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है।
कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं।
ऐसे कोई ्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं।
संयोगिता प्रकरण में पृथ्वीराज के मुख्य-मुख्य सामन्त काम आ गए थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से गौरी को समाचार दिया कि पृथ्वीराज के प्रमुख सामन्त अब नहीं रहे, यही मौका है। तब भी गौरी को विश्वास नहीं हुआ, उसने अपने दूत फकीरों के भेष में दिल्ली भेजे।
ये लोग इन्हीं लोगों के पास गुप्त रूप से रहे थे। इन्होंने जाकर ौरी_को_सूचना दी, तब जाकर गौरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था।
👉 गौरी को भेद देने वाले थे
1- नित्यानन्द खत्री,
2- प्रतापसिंह जैन,
3- माधोभट्ट तथा
4- धर्मायन कायस्थ जो तेंवरों के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे (पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)। समकालीन इतिहास में कही भी जयचन्द के बारे में उल्लेख नहीं है कि उसने गौरी की सहायता की हो।
यह सब आधुनिक इतिहास में कपोल कल्पित बातें हैं। जयचन्द का पृथ्वीराज से कोई वैमनस्य नहीं था। संयोगिता प्रकरण से जरूर वह थोड़ा कुपित हुआ था।जबकि संयोगिता महाराजा जयचन्द जी की #सगी बेटी नही थी ! महाराजा जयचन्द ने संयोगिता को बेटी समान मानते थे !
उस समय पृथ्वीराज, जयचन्द की कृपा से ही बचा था।
संयोगिता हरण के समय जयचन्द ने अपनी सेना को आज्ञा दी थी कि इनको घेर लिया जाए।
लगातार पाँच दिन तक पृथ्वीराज को दबाते रहे। पृथ्वीराज के प्रमुखप्रमुख सामन्त युद्ध में काम आ गए थे। पाँचवे दिन सेना ने घेरा और कड़ा कर दिया। जयचन्द आगे बढ़ा वह देखता है कि पृथ्वीराज के पीछे घोड़े पर संयोगिता बैठी है। उसने विचार किया कि संयोगिता ने पृथ्वीराज का वरण किया है। अगर मैं इसे मार देता हूँ तो बड़ा अनर्थ होगा, बेटी विधवा हो जाएगी। उसने सेना को घेरा तोड़ने का आदेश दिया, तब कहीं जाकर पृथ्वीराज दिल्ली पहुँचा।
फिर जयचन्द ने अपने पुरोहित दिल्ली भेजे, जहाँ विधि-विधान से पृथ्वीराज और संयोगिता का विवाह सम्पन्न हुआ।
पृथ्वीराज और गौरी के युद्ध में जयचन्द तटस्थ रहा था।
जबकि आनंद शर्मा जैसे इतिहासकार और कई इतिहासकार यह दावा करते हैं कि धर्म परायण महाराजा जय चंद्र जी की कोई बेटी ही नहीं थी !
क्योंकि कोई तथ्य प्राप्त नहीं होते हैं उनकी किसी बेटी होने का !!
इस युद्ध में पृथ्वीराज ने उससे सहायता भी नहीं माँगी थी। पहले युद्ध में भी सहायता नहीं माँगी थी। अगर पृथ्वीराज सहायता माँगता तो जयचन्द सहायता जरूर कर जाते ।
अगर जयचन्द और गौरी में मित्रता होती तो बाद में गौरी जयचन्द पर आक्रमण क्यों करता ?
अतः यह आरोप मिथ्या है।
पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था।
इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था।
यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है।
नोत्र : राजा जयचंद गद्दार नहीं, निर्दोष थे, वे दुष्प्रचार के शिकार हुए| ..
महाराजा जयचन्द जी एक धर्मपरायण देशभक्त महाराजा थे!
यह सभी इतिहासकार यही कहते है , वह भी पूरे #प्रमाण के साथ कि महाराजा जयचन्द जी एक धर्मपरायण देशभक्त महाराजा थे !!
1. नयचन्द्र : रम्भामंजरी की प्रस्तावना।
2. Indian Antiquary, XI, (1886 A.D.), Page 6, श्लोक 13-14
3. भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अध्याय 6
4. Dr. R. S. Tripathi : History of Kannauj, Page 326
5. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 107
6. J. H. Gense : History of India (1954 A.D.), Page 102
7. John Briggs : Rise of the Mohomeden Power in India (Tarikh-a-Farishta), Vol. I, Page 170
8. डॉ. रामकुमार दीक्षित एवं कृष्णदत्त वाजपेयी : कन्नौज, पृ. 15
9. Dr. R. C. Majumdar : Ancient Indian, Page 336 एवं An Advanced History of India, Page 278
10. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 112
11. J. C. Powell-Price : History of India, Page 114
12. Vincent Arthur Smith : Early History of India, Page 403
13. डॉ. आनन्दस्वरूप मिश्र : कन्नौज का इतिहास, पृ. 519-555
14. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. viii-xii
15. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृष्ठ xi
#जितेन्द्र_सिंह_संजय( साहित्यकार)
सौजन्य से : राजन्य_क्रोनिकल्स