11/12/2024
پہاڑوں کا عالمی دن International Mountain Day
ماڑی میں کٹی پہاڑی کی دریافت 😁
یہ 2013ء کی بات ہے جب ماڑی کوہِ سلیمان میں یہ میرا دوسرا اور جناب حسن مجتبیٰ بخاری کا پہلا وزٹ تھا. فطرتی مناظر کی تلاش میں ہم دونوں میرے CD 70 2008 Model پر علی الصبح نکلنے والے تھے مگر تیاری کرتے کرتے دن کے 1 بج گئے 🙄. جام پور سے براستہ داجل ہم جب لُنڈی سیدان پہنچے تو وہاں رودکوہی (مقامی زبان میں جسے "نئیں" کہا جاتا ہے) نے ہمارا استقبال کیا. ان دنوں وہاں پل نہیں تھا اور مسافر گھنٹوں رود کوہی کے گزر جانے کا انتظار کیا کرتے تھے. ہم دیکھ سکتے تھے کہ دوسرے کنارے پر کافی لوگ موجود تھے جو پانی کے گزر جانے کا کافی دیر سے انتظار کر رہے تھے. چنانچہ ہم بھی انتظار کرنے لگے.
اتنے میں ایک نوجوان جو کہ بارڈر ملٹری پولیس کا ملازم تھا, وہاں پہنچا. ہماری علیک سلیک ہوئی اور تعارف کرانے پر معلوم ہوا کہ وہ نوجوان فورٹ منرو اپنی ڈیوٹی کر کے واپس آ رہا تھا اور اسے لعل گڑھ جانا تھا. اس نے کہا کہ اب رود کوہی کا پانی کافی کم ہو چکا ہے لہٰذا ہم اب اس کو پار کریں گے.
پہلے اس نوجوان نے ہمارا موٹرسائیکل رود کوہی میں اتارا. پانی اتنا تھا کہ ہمارے موٹر سائیکل کا ہینڈل اور ٹینکی ہی پانی سے باہر تھی. رودکوہی پار کرنے میں ہمیں 20 منٹ لگے. ہمیں دوسرے کنارے پر چھوڑ کر وہ اپنا بائیک جو کہ ہونڈا 125 تھا, لینے کے لیے دوسرے کنارے چلا گیا. اب چونکہ موٹرسائیکل میں پانی بھر چکا تھا تو ہم نے اس نوجوان کے آنے تک اسے سٹارٹ کرنے کی بھرپور کوششِ ناکام کی.
چند منٹوں بعد نوجوان آن پہنچا اور ہمارا بائیک سٹارٹ کرنے میں ہماری مدد کی. اس کے بعد وہ ہمیں لعل گڑھ اپنی بیٹھک پر لے گیا. ہمارے ہاتھ, پیر اور کپڑے پہاڑی پانی اور مٹی سے خراب ہو چکے تھے تو وہ پانی کے لوٹے لے آیا اور خود ہمارے ہاتھ پاؤں دھلوانے لگا. ہم نے بارہا اسے کہا کہ ہم خود دھو لیں گے مگر اس نے کہا کہ ہمارے ہاں مہمان نوازی ایسے کی جاتی ہے. ہم مہمان کا احترام کرتے ہیں. اس نوجوان نے ہمیں کھانے کی دعوت دی مگر ہم نے ان کا شکریہ ادا کرتے ہوۓ ان سے اجازت لی اور ماڑی کی طرف روانہ ہو لیے.
اب چونکہ شام ہو رہی تھی تو ماڑی ٹاپ پر پہنچ کر ہم نے ہوٹل بُک کیا اور آرام کرنے لگے. یوں رات گزر گئی 😁
صبح جاگ کر ہم ماڑی کو explore کرنے کے لیے بائک ٹاپ پر کھڑی کی اور پیدل نکل پڑے. ہم زیارت پہنچے جہاں پانی کا چشمہ دیکھ کر مزہ آ گیا. وہاں ہمیں ایک نوجوان ملا جو زیارت سے آگے جا رہا تھا. اس سے بات ہوئی تو اس نے ہمیں اپنے ساتھ چلنے کو کہا. دوپہر کا وقت تھا. ہم اس کی بیٹھک میں پہنچے جو پتھروں سے بنی تھی. اس کے اندر AC جیسا ماحول تھا. انھوں نے ہماری تواضع دیسی مرغی سے کی. گفت و شنید کے دوران ہم نے ان سے پوچھا کہ کیا یہاں کوئی ایسی جگہ ہے جہاں آج تک کوئی سیاح نہ پہنچا ہو. اس نوجوان نے بتایا کہ ایک جگہ ہے. جسے شاید جِر ماڑی کہا جاتا ہے. مجھے پوری طرح سے یاد نہیں کہ اس نوجوان نے یہی نام لیا تھا... 🙄
خیر ہم اس جگہ کے لیے روانہ ہو گئے اور آدھا گھنٹہ پیدل چلنے کے بعد وہ ہمیں ایسی جگہ لے گیا جو واقعی میں untouch تھی. وہاں کے مناظر نے ہمیں حیران کر دیا. اس دن ہمارے پاس موجود کیمرہ اور موبائل کی بیٹری ختم ہو گئی تھی. اوپر موجود یہ وہ آخری تصاویر ہیں جو ہم نے موبائل سے بنائی تھیں.
ہم نے وہاں کافی وقت گزارا اور سہہ پہر کے وقت واپس آ گئے. اس پہاڑی کے خدوخال کو دیکھتے ہوۓ میں نے اس کا نام "کٹی پہاڑی" رکھا جو آج رائج ہے. جناب حسن مجتبیٰ بخاری اور میرے لیے یہ ایک عظیم دریافت تھی.
عصر کے وقت خوب بارش ہوئی اور مقامی لوگوں کی نصیحت کے مطابق ہمیں اسی وقت وہاں سے نیچے آنا تھا ورنہ کھرگلی والی رودکوہی میں پانی آ جاتا اور ہمیں 2 سے 3 گھنثے وہاں انتظار کرنا پڑتا اور راستے میں رات ہو جاتی.
ان دنوں ایک بہت ہی نیک ہستی ماڑی میں موجود تھی, جناب عبدالصمد مہاروی رح. ہم نے ان سے ملاقات کا شرف حاصل کیا, دعا کرائی اور واپسی کے لیے روانہ ہو لیے.
واپسی پر کھرگلی رودکوہی نے ہمیں روک لیا اور ہمیں ایک گھنٹے سے زیادہ انتظار کرنا پڑا. اب کیوں کہ رات ہو رہی تھی تو ہم نے اپنی بائک رودکوہی میں ڈال دی اور کھینچ کر دوسرے کنارے لے گئے. نتیجہ یہ نکلا کہ انجن اور سائلنسر میں پانی بھر جانے کہ وجہ سے بائک سٹارٹ نہ ہو سکا اور ہم ایک دوسرے کا منھ تکنے لگے.
اتنے میں دو نوجوان وہاں پہنچے. ہماری حالت دیکھی. ان میں سے ایک نے کہا کہ ہاتھ ملاؤ, میں مکینک ہوں 😁. اس نے 5 منٹوں بائک سٹارٹ کر دی. ہم نے ان کا شکریہ ادا کیا اور واپسی کے لیے روانہ ہوۓ.
واپسی پر اسی لُنڈی سیدان والی رود کوہی میں سے گزرے مگر اب پانی کافی کم ہو چکا تھا. پانی سے تو بچ گئے مگر راستہ بھول گئے اور جناب امیر حمزہ سلطان والے راستے سے جانے کی بجاۓ چوکی ریخ والا راستہ لے لیے. جب ریت اور ٹوٹا راستہ شروع ہوا تو بعد میں سمجھ آیا کہ یہ تو ہڑنڈ والے گھٹ ہیں. 🙄😁🥴 یہ سوچ کر ہماری تو بولتی بند ہو گئی. مکمل ویران راستہ. میں نے نہ ریت کے ٹیلے دیکھے نہ گہرے کھڈے... دوسرے گئیر میں گاڑی اتنا بھگائی کہ داجل میں نہر والی پل پر آ کر ہی دم لیا. اللّہ تعالیٰ کا شکر ادا کیا اور جام پور پہنچے. یہ ہمارا ایک انتہائی یادگار سفر تھا.
تحریر: محمد شاہد اقبال (ایم ایس اقبال) Muhammad Shahid Iqbal
पर्वतों का अंतरराष्ट्रीय दिवस
मारी में "कटी पहाड़ी" की खोज 😁
यह 2013 की बात है जब मैंने मारी कोह-ए-सुलेमान की दूसरी यात्रा की और जनाब हसन मुज्तबा बुखारी के साथ उनकी पहली यात्रा थी। प्राकृतिक नजारों की खोज में, हमने सुबह जल्दी अपनी 2008 मॉडल की सीडी 70 मोटरसाइकिल पर निकलने का प्लान किया था, लेकिन तैयारी करते-करते दोपहर के 1 बज गए 🙄। जामपुर से दाजल के रास्ते जब हम लुंडी सैयदान पहुंचे, तो वहां एक मौसमी नदी (स्थानीय भाषा में जिसे "नैं" कहा जाता है) ने हमारा स्वागत किया। उस समय वहां पुल नहीं था, और यात्री घंटों तक पानी के कम होने का इंतजार किया करते थे। हमने देखा कि दूसरी तरफ काफी लोग खड़े थे जो लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। इसलिए हमने भी इंतजार करना शुरू कर दिया।
उसी समय, एक युवक वहां पहुंचा, जो बॉर्डर मिलिट्री पुलिस में काम करता था। अभिवादन के बाद परिचय हुआ, और हमें पता चला कि वह फोर्ट मुनरो में अपनी ड्यूटी पूरी करके लालगढ़ लौट रहा था। उसने कहा कि अब नदी का पानी काफी कम हो चुका है, और अब इसे पार किया जा सकता है।
पहले उस युवक ने हमारी मोटरसाइकिल को नदी में उतारा। पानी इतना था कि सिर्फ हैंडल और टंकी ही पानी से बाहर थी। नदी को पार करने में हमें 20 मिनट लग गए। हमें दूसरी तरफ छोड़कर वह अपनी होंडा 125 मोटरसाइकिल लाने के लिए वापस गया। चूंकि हमारी मोटरसाइकिल में पानी भर चुका था, हमने उसे चालू करने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली।
कुछ ही मिनटों बाद वह युवक वापस आया और हमारी मोटरसाइकिल स्टार्ट करने में मदद की। इसके बाद वह हमें लालगढ़ अपने बैठने की जगह पर ले गया। पहाड़ी पानी और कीचड़ के कारण हमारे हाथ, पैर और कपड़े खराब हो चुके थे, इसलिए वह पानी का लोटा लेकर आया और खुद हमारे हाथ-पैर धोने लगा। हमने कई बार कहा कि हम खुद धो लेंगे, लेकिन उसने कहा कि हमारे यहां मेहमानों का इसी तरह सम्मान किया जाता है। उसने हमें खाने का निमंत्रण भी दिया, लेकिन हमने धन्यवाद कहकर उससे विदा ली और मारी की ओर रवाना हो गए।
अब शाम हो रही थी, तो मारी टॉप पहुंचकर हमने होटल बुक किया और आराम किया।
अगली सुबह, हमने अपनी मोटरसाइकिल टॉप पर पार्क की और मारी को पैदल एक्सप्लोर करने निकल पड़े। हम ज़ियारत पहुंचे, जहां पानी के झरने को देखकर मजा आ गया। वहां हमें एक युवक मिला जो ज़ियारत से आगे जा रहा था। बातचीत के बाद उसने हमें अपने साथ चलने को कहा। दोपहर का समय था। हम उसके पत्थरों से बने बैठने के स्थान पर पहुंचे, जो अंदर से एसी जैसा ठंडा था। उन्होंने हमारी मेहमाननवाजी देसी मुर्गी से की।
बातचीत के दौरान, हमने पूछा कि क्या यहां कोई ऐसी जगह है जहां अब तक कोई सैलानी न पहुंचा हो। उसने बताया कि एक जगह है, जिसे शायद "जिर मारी" कहा जाता है। मुझे पूरा यकीन नहीं कि उसने यही नाम लिया था... 🙄।
खैर, हम उस जगह की ओर चल दिए और आधे घंटे की पैदल यात्रा के बाद वह हमें ऐसी जगह ले गया, जो वास्तव में अनछुई थी। वहां के दृश्य देखकर हम हैरान रह गए। उस दिन हमारे पास जो कैमरा और मोबाइल था, उसकी बैटरी खत्म हो चुकी थी। ऊपर जो तस्वीरें दिख रही हैं, वे हमारी आखिरी ली गई तस्वीरें थीं।
हमने वहां काफी समय बिताया और दोपहर बाद वापस आ गए। उस पहाड़ी की बनावट को देखकर मैंने उसका नाम "कटी पहाड़ी" रखा, जो आज प्रचलित है। जनाब हसन मुज्तबा बुखारी और मेरे लिए यह एक अद्भुत खोज थी।
शाम के समय तेज बारिश होने लगी। स्थानीय लोगों की सलाह पर, हमने तुरंत वहां से नीचे उतरने का फैसला किया। यदि हम और रुकते, तो खर्गली नदी में पानी आ जाता, और हमें 2-3 घंटे इंतजार करना पड़ता, और रास्ते में रात हो जाती।
उन दिनों, मारी में एक महान धार्मिक हस्ती, जनाब अब्दुस्समद महारवी (रह.) मौजूद थे। हमने उनसे मिलने का सम्मान प्राप्त किया, उनसे दुआ करवाई, और वापसी के लिए निकल पड़े।
वापसी में, खर्गली नदी ने फिर से हमारा रास्ता रोक लिया, और हमें एक घंटे से अधिक इंतजार करना पड़ा। रात होने के कारण, हमने मोटरसाइकिल को पानी में डाल दिया और खींचकर दूसरी तरफ ले गए। इसका परिणाम यह हुआ कि इंजन और साइलेंसर में पानी भर गया, और बाइक स्टार्ट नहीं हो पाई।
तभी दो युवक वहां पहुंचे। हमारी हालत देखकर उनमें से एक ने कहा, "हाथ मिलाओ, मैं मेकैनिक हूं 😁।" उसने 5 मिनट में बाइक स्टार्ट कर दी। हमने उनका धन्यवाद किया और वापस चल दिए।
वापसी में, जब हम लुंडी सैयदान नदी से गुजरे, तो पानी काफी कम हो चुका था। लेकिन इस बार, हम रास्ता भूल गए और जनाब अमीर हमजा सुल्तान के रास्ते की बजाय चौकी रेख वाले रास्ते पर चले गए। जब रास्ते में रेत और टूटे हुए रास्ते शुरू हुए, तो समझ आया कि यह तो हरंड वाला इलाका है 🙄😁🥴। यह सोचकर हमारी बोलती बंद हो गई। पूरा रास्ता वीरान था। मैंने न तो रेत के टीलों को देखा और न गहरे गड्ढों को... हमने गाड़ी को दूसरे गियर में दौड़ाया और आखिरकार दाजल में नहर वाले पुल पर जाकर दम लिया। अल्लाह का शुक्र अदा किया और जामपुर पहुंचे।
यह हमारी जिंदगी की सबसे यादगार यात्रा थी।
लेखक: मुहम्मद शाहिद इकबाल (एम.एस. इकबाल)